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नज़्म
मुझ को शिकवा है मिरे भाई कि तुम जाते हुए
ले गए साथ मिरी उम्र-ए-गुज़िश्ता की किताब
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
सब्ज़ा सब्ज़ा सूख रही है फीकी ज़र्द दोपहर
दीवारों को चाट रहा है तन्हाई का ज़हर
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मादर-ए-हिन्द के फ़नकार थे मिर्ज़ा 'ग़ालिब'
अपने फ़न में बड़े हुश्यार थे मिर्ज़ा 'ग़ालिब'
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
नज़्म
अगर दावत हो खाने की तो इस में सोचना क्या है
नहीं गर ये ख़ुदा की देन तो इस के सिवा क्या है